॥ श्रीदुर्गाये नमः ॥
अथ श्री दुर्गा सप्तशती

पहला अध्याय : मेधा ऋषि का राजा सुरथ और समाधि को भगवती की महिमा बताते हुए मधु-केटभ-वधका प्रसंग सुनाना

****** विनियोग ******

ॐ प्रथम चरित्र के ब्रह्मा ऋषि, महाकाली देवता, गायत्री छन्द, नन्दा शक्ति, रक्तदन्ति का बीज, अग्मि तत्त्व और ऋग्वेद स्वरूप है। श्रीमहाकाली देवता की प्रसन्नता के लिये प्रथम चरित्र के जप में विनियोग किया जाता है।

****** ध्यान ******

भगवान्‌ विष्णु के सो जाने पर मधु और कैटभ को मारने के लिये कमल जन्मा ब्रह्माजी ने जिनका स्तवन किया था, उन महाकाली देवी का मैं सेवन करता (करती) हूँ। वे अपने दस हाथों में खड़ंग, चक्र, गदा, बाण, धनुष, परिघ, शूल, भुशुण्डि, मस्तक ओर शंख धारण करती हैं। उनके तीन नेत्र हैं। वे समस्त अंगों में दिव्य आभूषणों से विभूषित हैं। उनके शरीर की कान्ति नील मणि के समान है तथा वे दस मुख ओर दस पेरों से युक्त हैं।

ॐ चण्डीदेवीको नमस्कार है।

मार्कण्डेयजी बोले— ॥ १ ॥ सूर्य के पुत्र सावर्णि जो आठवें मनु कहे जाते हैं, उनकी उत्पत्ति की कथा विस्तार पूर्वक कहता हूँ, सुनो ॥ २ ॥ सूर्यकुमार महाभाग सावर्णि भगवती महामाया के अनुग्रह से जिस प्रकार मन्वन्तर के स्वामी हुए, वही प्रसंग सुनाता हूँ ॥ ३ ॥ पूर्वकाल की बात है, स्वारोचिष मन्वन्तर में सुरथ नाम के एक राजा थे, जो चेत्र वंश में उत्पन्न हुए थे। उनका समस्त भूमण्डल पर अधिकार था ॥ ४ ॥ वे प्रजा का अपने औरस पुत्रों की भाँति धर्मपूर्वक पालन करते थे; तो भी उस समय कोलाविध्वंसी नाम के क्षत्रिय उनके शत्रु हो गये ॥ ५॥ राजा सुरथ की दण्ड नीति बड़ी प्रबल थी। उनका शत्रुओं के साथ संग्राम हुआ । यद्यपि कोलाविध्वंसी संख्या में कम थे तो भी राजा सुरथ युद्ध में उनसे परास्त हो गये॥ ६ ॥ तब वे युद्ध भूमि से अपने नगर को लोट आये ओर केवल अपने देश के राजा होकर रहने लगे (समूची पृथ्वी से अब उनका अधिकार जाता रहा ), किंतु वहाँ भी उन प्रबल शत्रुओं ने उस समय महाभाग राजा सुरथ पर आक्रमण कर दिया।॥ ७ ॥

राजा का बल क्षीण हो चला था; इसलिये उनके दुष्ट, बलवान एवं दुरात्मा मन्त्रियों ने वहाँ उनकी राजधानी में भी राजकीय सेना और खजाने को हथिया लिया ॥ ८ ॥ सुरथका प्रभुत्व नष्ठ हो चुका था, इसलिये वे शिकार खेलने के बहाने घोड़े पर सवार हो वहाँ से अकेले ही एक घने जंगल में चले गये ॥ ९ ॥ वहाँ उन्होंने विप्रवर मेधा मुनिका आश्रम देखा, जहाँ कितने ही हिंसक जीव [अपनी स्वाभाविक हिंसावत्ति छोड़कर] परम शान्त भाव से रहते थे। मुनि के बहुत-से शिष्य उस वन की शोभा बढ़ा रहे थे॥ १० ॥ वहाँ जाने पर मुनि ने उनका सत्कार किया ओर वे उन मुनि श्रेष्ठ के आश्रम पर इधर-उधर विचरते हुए कुछ काल तक रहे॥ ११ ॥ फिर ममता से आकृष्टच्चित्त होकर वहाँ इस प्रकार चिन्ता करने लगे–‘पूर्व काल में मेरे पूर्वजों ने जिसका पालन किया था, वही नगर आज मुझसे रहित है। पता नहीं, मेरे दुराचारी भृत्यगण उसकी धर्मपूर्वक रक्षा करते हैं या नहीं। जो सदा मद की वर्षा करने वाला ओर शूरवीर था, वह मेरा प्रधान हाथी अब शत्रुओं के अधीन होकर न जाने किन भोगों को भोगता होगा? जो लोग मेरी कृपा, धन और भोजन पाने से सदा मेरे पीछे-पीछे चलते थे, वे निश्चय ही अब दूसरे राजाओं का अनुसरण करते होंगे।

उन अपव्ययी लोगों के द्वारा सदा खर्च होते रहने के कारण अत्यन्त कष्ट से जमा किया हुआ मेरा वह खजाना खाली हो जायगा।’ ये तथा ओर भी कई बातें राजा सुरथ निरन्तर सोचते रहते थे। एक दिन उन्होंने वहाँ विप्रवर मेधा के आश्रम के निकट एक वैश्य को देखा और उससे पूछा–‘ भाई तुम कौन हो ? यहाँ तुम्हारे आने का क्या कारण है ? तुम क्‍यों शोकग्रस्त और अनमने-से दिखायी देते हो ?’ राजा सुरथ का यह प्रेमपूर्वक कहा हुआ वचन सुनकर वैश्य ने विनीत भाव से उन्हें प्रणाम करके कहा–॥ १२–१९॥

वैश्य बोला–॥ २०॥ राजन्‌! में धनियों के कुल में उत्पन्न एक वैश्य हूँ। मेरा नाम समाधि है॥ २१॥ मेरे दुष्ट स्त्री-पुत्रों ने धन के लोभ से मुझे घर से बाहर निकाल दिया है। में इस समय धन, स्त्री और प॒त्रों से वज्चित हूँ। मेरे विश्वसनीय बन्धुओं ने मेरा ही धन लेकर मुझे दूर कर दिया है, इसलिये दुःखी होकर में वन में चला आया हूँ । यहाँ रहकर में इस बात को नहीं जानता कि मेरे पुत्रों की, स्त्री की और स्वजनों की कुशल है या नहीं। इस समय घर में वे कुशल से रहते हैं अथवा उन्हें कोई कष्ट है ? २२– २४॥ वे मेरे पुत्र केसे हैं ? क्या वे सदाचारी हैं अथवा दुराचारी हो गये हैं ?7॥ २५॥

राजा ने पूछा–॥ २६॥ जिन लोभी स्त्री-पुत्र आदि ने धन के कारण तुम्हें घर से निकाल दिया, उनके प्रति तुम्हारे चित्त में इतना स्नेह का बन्धन क्‍यों है॥ २७-२८॥

वैश्य बोला— ॥ २९ ॥ आप मेरे विषय में जेसी बात कहते हैं, वह सब ठीक है॥ ३०॥ किंतु क्‍या करूँ, मेरा मन निष्ठुरता नहीं धारण करता। जिन्होंने धन के लोभ में पड़कर पिता के प्रति स्न्रेह, पति के प्रति प्रेम तथा आत्मीयजन के प्रति अनुराग को तिलाझलि दे मुझे घरसे निकाल दिया है, उन्हीं के प्रति मेरे हृदय में इतना स्नेह है। महामते! गुणहीन बन्धुओं के प्रति भी जो मेरा चित्त इस प्रकार प्रेममग्र हो रहा है, यह क्या है–इस बात को में जानकर भी नहीं जान पाता। उनके लिये मैं लंबी साँसें ले रहा हूँ और मेरा हृदय अत्यन्त दुःखित हो रहा है॥ ३१–३३ ॥ उन लोगों में प्रेम का सर्वथा अभाव है; तो भी उनके प्रति जो मेरा मन निष्ठर नहीं हो पाता, इसके लिये क्या करूँ ?॥ ३४॥

मार्कण्डेय जी कहते हैं–॥ ३५॥ ब्रह्मन्‌! तदनन्तर राजाओं में श्रेष्ठ सुरथ और वह समाधि नामक वैश्य दोनों साथ-साथ मेधा मुनि की सेवा में उपस्थित हुए और उनके साथ यथायोग्य न्यायानुकूल विनयपूर्ण बर्ताव करके बैठे। तत्पश्चात्‌ वैश्य और राजा ने कुछ वार्तालाप आरम्भ किया॥ ३६–३८॥

राजाने कहा–॥ ३९॥ भगवन्‌! में आपसे एक बात पूछना चाहता हूँ, उसे बताइये ॥ ४० ॥ मेरा चित्त अपने अधीन न होने के कारण वह बात मेरे मन को बहुत दुःख देती है। जो राज्य मेरे हाथ से चला गया है, उसमें ओर उसके सम्पूर्ण अंगों में मेरी ममता बनी हुई है॥ ४१॥ मुनिश्रेष्ठ यह जानते हुए भी कि वह अब मेरा नहीं है, अज्ञानी की भाँति मुझे उसके लिये दुःख होता है; यह क्‍या है? इधर यह वैश्य भी घर से अपमानित होकर आया है। इसके पत्र, स्त्री और भृत्यों ने इसे छोड़ दिया है॥ ४२॥ स्वजनों ने भी इसका परित्याग कर दिया है तो भी यह उनके प्रति अत्यन्त हार्दिक स्त्रेह रखता है। इस प्रकार यह तथा में दोनों ही बहुत दुःखी हैं।॥ ४३॥

जिसमें प्रत्यक्ष दोष देखा गया है, उस विषय के लिये भी हमारे मन में ममता जनित आकर्षण पैदा हो रहा है। महाभाग! हम दोनों समझदार हैं; तो भी हममें जो मोह पेदा हुआ है, यह क्‍या है? विवेक शून्य पुरुष की भाँति मुझमें और इसमें भी यह मूढ़ता प्रत्यक्ष दिखायी देती है॥ ४४-४५॥

ऋषि बोले–॥ ४६॥ महाभाग! विषय मार्ग का ज्ञान सब जीवों को है॥ ४७॥ इसी प्रकार विषय भी सबके लिये अलग-अलग हैं, कुछ प्राणी दिन में नहीं देखते और दूसरे रात में ही नहीं देखते ॥ ४८ ॥ तथा कुछ जीव ऐसे हैं, जो दिन और रात्रि में भी बराबर ही देखते हैं। यह ठीक है कि मनुष्य समझदार होते हैं; किंतु केवल वे ही ऐसे नहीं होते। ४९॥ पशु, पक्षी ओर मृग आदि सभी प्राणी समझदार होते हैं। मनुष्यों की समझ भी वैसी ही होती है, जैसी उन मृग और पक्षियों की होती है॥ ५०॥ तथा जैसी मनुष्यों की होती है, वैसी ही उन मृग-पक्षी आदि की होती है। यह तथा अन्य बातें भी प्रायः दोनों में समान ही हैं। समझ होने पर भी इन पक्षियों को तो देखो, ये स्वयं भूख से पीड़ित होते हुए भी मोहवश बच्चों की चोंच में कितने चाव से अन्न के दाने डाल रहे हैं! नरश्रेष्ठ। क्‍या तुम नहीं देखते कि ये मनुष्य समझदार होते हुए भी लोभ वश अपने किये हुए उपकार का बदला पाने के लिये प॒त्रों का अभिलाषा करते हैं ? यद्यपि उन सब में समझ की कमी नहीं है, तथापि वे संसार की स्थिति ( जन्म-मरण की परम्परा ) बनाये रखने वाले भगवती महामाया के प्रभाव द्वारा ममतामय भँवर से युक्त मोह के गहरे गर्त में गिराये गये हैं।

इसलिये इसमें आश्चर्य नहीं करना चाहिये। जगदीश्वर भगवान्‌ विष्णु की योग निद्रारूपा जो भगवती महामाया हैं, उन्हीं से यह जगत्‌ मोहित हो रहा है। वे भगवती महामाया देवी ज्ञानियों के भी चित्त को बलपूर्वक खींचकर मोह में डाल देती हैं। वे ही इस सम्पूर्ण चराचर जगत की सृष्टि करती हैं तथा वे ही प्रसन्न होने पर मनुष्यों को मुक्ति के लिये वरदान देती हैं। वे ही परा विद्या संसार-बन्धन और मोक्ष की हेतुभूता सनातनी देवी तथा सम्पूर्ण ईश्वरों की भी अधीक्चरी हैं॥ ५१–५८॥

राजाने पूछा–॥ ५९॥ भगवन्‌! जिन्हें आप महामाया कहते हैं, वे देवी कोन हैं? ब्रह्मन! उनका आविर्भाव कैसे हुआ? तथा उनके चरित्र कौन-कौन हैं? ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ महर्ष! उन देवी का जैसा प्रभाव हो, जेसा स्वरूप हो और जिस प्रकार प्रादरर्भाव हुआ हो, वह सब में आपके मुख से सुनना चाहता हूँ॥ ६०–६२॥

ऋषि बोले— ॥ ६३ ॥ राजन्‌! वास्तव में तो वे देवी नित्यस्वरूपा ही हैं। सम्पूर्ण जगत उन्हीं का रूप है तथा उन्होंने समस्त विश्व को व्याप्त कर रखा है, तथापि उनका प्राकट्य अनेक प्रकार से होता है। वह मुझसे सुनो। यद्यपि वे नित्य और अजन्मा हैं, तथापि जब देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिये प्रकट होती हैं, उस समय लोक में उत्पन्न हुई कहलाती हैं। कल्प के अन्त में जब सम्पूर्ण जगत एकार्णवमें निमग्र हो रहा था और सबके प्रभु भगवान्‌ विष्णु शेषनाग की शय्या बिछाकर योगनिद्रा का आश्रय ले सो रहे थे, उस समय उनके कानों के मैल से दो भयंकर असुर उत्पन्न हुए, जो मधु ओर कैटभके नामसे विख्यात थे। वे दोनों ब्रह्मजी का वध करने को तेयार हो गये। भगवान्‌ विष्णु के नाभिकमल में विराजमान प्रजापति ब्रह्माजी ने जब उन दोनों भयानक असुरों को अपने पास आया और भगवान को सोया हुआ देखा, तब एकाग्रचित्त होकर उन्होंने भगवान्‌ विष्णु को जगाने के लिये उनके नेत्रों में निवास करने वाली योगनिद्राका सतवन आरम्भ किया। जो इस विश्व की अधीशथश्चरी, जगत्‌को धारण करने वाली, संसार का पालन और संहार करने वाली तथा तेज:स्वरूप भगवान्‌ विष्णु की अनुपम शक्ति हैं, उन्हीं भगवती निद्रादेवी की भगवान्‌ ब्रह्मा स्तुति करने लगे॥ ६४–७१॥

ब्रह्मा जी ने कहा–॥ ७२॥ देवि! तुम्हीं स्वाहा, तुम्हीं स्वधा ओर तुम्हीं वषट्कार हो। स्वर भी तुम्हारे ही स्वरूप हैं। तुम्हीं जीवन दायिनी सुधा हो। नित्य अक्षर प्रणव में अकार, उकार, मकार–इन तीन मात्राओं के रूप में तुम्हीं स्थित हो। तथा इन तीन मात्राओं के अतिरिक्त जो विन्दुरूपा नित्य अर्थमात्रा है। जिसका विशेष रूप से उच्चारण नहीं किया जा सकता, वह भी तुम्हीं हो। देवि! तुम्हीं संध्या, सावित्री तथा परम जननी हो। देवि! तुम्हीं इस विश्व-ब्रह्माण्ड को धारण करती हो। तुमसे ही इस जगत की सृष्टि होती है। तुम्हीं से इसका पालन होता है ओर सदा तुम्हीं कल्प के अन्त में सबको अपना ग्रास बना लेती हो। जगन्मयी देवि! इस जगत की उत्पत्ति के समय तुम सृष्टि रूपा हो, पालन-काल में स्थिति रूपा हो तथा कल्पान्त के समय संहार रूप धारण करने वाली हो। तुम्हीं महाविद्या, महामाया, महामेधा, महास्मृति, महामोहरूपा, महादेवी और महासुरी हो। तुम्हीं तीनों गुणों को उत्पन्न करने वाली सब की प्रकृति हो। भयंकर कालरात्रि, महारात्रि और मोहरात्रि भी तुम्हीं हो। तुम्हीं श्री, तुम्हीं ईश्वरी, तुम्हीं ही ओर तुम्हीं बोधस्वरूपा बुद्धि हो। लज्जा, पुष्टि, तुष्टि, शान्ति और क्षमा भी तुम्हीं हो। तुम खड्गधारिणी, शूलधारिणी, घोररूपा तथा गदा, चक्र, शंख और धनुष धारण करने वाली हो। बाण, भुशुण्डी ओर परिघ- ये भी तुम्हारे अस्त्र हैं। तुम सोम्य और सौम्यतर हो–इतना ही नहीं, जितने भी सौम्य एवं सुन्दर पदार्थ हैं, उन सब की अपेक्षा तुम अत्यधिक सुन्दरी हो। पर और अपर–सबसे परे रहने वाली परमेश्वरी तुम्हीं हो।

सर्वस्वरूपे देवि! कहीं भी सत्‌-असत्‌रूप जो कुछ वस्तुएं हैं और उन सब की जो शक्ति है, वह तुम्हीं हो। ऐसी अवस्था में तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है? जो इस जगत की सृष्टि, पालन और संहार करते हैं, उन भगवान को भी जब तुमने निद्रा के अधीन कर दिया है, तब तुम्हारी स्तुति करने में यहाँ कौन समर्थ हो सकता है ? मुझ को, भगवान्‌ शंकर को तथा भगवान्‌ विष्णु को भी तुमने ही शरीर धारण कराया है; अतः तुम्हारी स्तुति करने की शक्ति किसमें है ? देवि! तुम तो अपने इन उदार प्रभावों से ही प्रशंसित हो। ये जो दोनों दर्धर्ष असुर मधु और केटभ हैं, इन को मोह में डाल दो और जगदीश्वर भगवान्‌ विष्णु को शीघ्र ही जगा दो। साथ ही इनके भीतर इन दोनों महान्‌ असुरों को मार डालने की बुद्धि उत्पन्न कर दो॥ ७३–८७॥

ऋषि कहते हैं–॥ ८८ ॥ राजन्‌! जब ब्रह्माजी ने वहाँ मधु और कैटभको मारने के उद्देश्य से भगवान्‌ विष्णु को जगाने के लिये तमोगुण की अधिटष्छठात्री देवी योगनिद्रा की इस प्रकार स्तुति की, तब वे भगवान के नेत्र, मुख, नासिका, बाहु, हदय ओर वक्ष: स्थलसे निकलकर अव्यक्तजन्मा ब्रह्माजी की दृष्टि के समक्ष खड़ी हो गयीं। योगनिद्रा से मुक्त होने पर जगत के स्वामी भगवान्‌ जनार्दन उस एकार्णव के जल में शेषनाग की शय्या से जाग उठे। फिर उन्होंने उन दोनों असुरों को देखा। वे दुरात्मा मधु और केटभ अत्यन्त बलवान्‌ तथा पराक्रमी थे और क्रोध से लाल आँखें किये ब्रह्माजी को खा जाने के लिये उद्योग कर रहे थे।

तब भगवान्‌ श्रीहरि ने उठकर उन दोनों के साथ पाँच हजार वर्षो तक केवल बाहु युद्ध किया। वे दोनों भी अत्यन्त बल के कारण उन्मत्त हो रहे थे। इधर महामाया ने भी उन्हें मोह में डाल रखा था; इसलिये वे भगवान्‌ विष्णु से कहने लगे–‘हम तुम्हारी वीरता से संतुष्ट हैं। तुम हम लोगों से कोई वर माँगो’ ॥ ८९–९५ ॥

श्रीभगवान बोले–॥ ९६ ॥ यदि तुम दोनों मुझ पर प्रसन्न हो तो अब मेरे हाथ से मारे जाओ। बस, इतना-सा ही मैंने वर माँगा है। यहाँ दूसरे किसी वर से क्‍या लेना है॥ ९७-९८॥

ऋषि कहते हें— ॥ ९९॥ इस प्रकार धोखे में आ जाने पर जब उन्होंने सम्पूर्ण जगत में जल-ही-जल देखा, तब कमलनयन भगवान से कहा–‘ जहाँ पृथ्वी जल में डूबी हुई न हो– जहाँ सूखा स्थान हो, वहीं हमारा वध करो ॥ १००-१०१॥

ऋषि कहते हैं— ॥ १०२ ॥ तब ‘तथास्तु ‘ कहकर शंख, चक्र और गदा धारण करने वाले भगवान ने उन दोनों के मस्तक अपनी जाॉघ पर रख कर चक्र से काट डाले। इस प्रकार ये देवी महामाया ब्रह्माजी की स्तुति करने पर स्वयं प्रकट हुई थीं। अब पुनः तुमसे उनके प्रभाव का वर्णन करता हूँ, सुनो॥ १०३-१०४॥

इस प्रकार श्रीमार्कण्डेयपुराण में सावर्णिक मन्वन्तर की कथा के अन्तर्गत देवीमाहात्म्य में मधु-केटथ-वध नामक पहला अध्याय पूरा हुआ॥ १ ॥