दूसरा अध्याय : देवताओंके तेजसे देवीका प्रादर्भाव और महिषासुरको सेनाका वध

****** विनियोग ******

ॐ मध्यम चरित्र के विष्णु ऋषि, महालक्ष्मी देवता, उष्णिक्‌ छन्‍द, शाकम्भरी शक्ति, दुर्गा बीज, वायु तत्त्व और यजुर्वेद स्वरूप है। श्रीमहालक्ष्मी की प्रसन्नता के लिये मध्यम चरित्र के पाठ में इसका विनियोग है।

****** ध्यान ******

मैं कमल के आसन पर बैठी हुई प्रसन्न मुखवाली महिषासुर- मर्दिनी भगवती महालक्ष्मी का भजन करता ( करती ) हूँ, जो अपने हाथों में अक्षमाला, फरसा, गदा, बाण, वज्र, पद्य, धनुष, कुण्डिका, दण्ड, शक्ति, खड़ंग, ढाल, शंख, घण्टा, मधुपात्र, शूल, पाश और चक्र धारण करती हैं।

ऋषि कहते हैं–॥ १ ॥ पूर्वकाल में देवताओं और असुरों में पूरे सौ वर्षो तक घोर संग्राम हुआ था। उसमें असुरों का स्वामी महिषासुर था और देवताओं के नायक इन्द्र थे। उस युद्ध में देवताओं की सेना महाबली असुरों से परास्त हो गयी। सम्पूर्ण देवताओं को जीतकर महिषासुर इन्द्र बन बैठा॥ २-३॥ तब पराजित देवता प्रजापति ब्रह्माजी को आगे करके उस स्थान पर गये, जहाँ भगवान्‌ शंकर और विष्णु विराजमान थे॥ ४ ॥ देवताओं ने महिषासुर के पराक्रम तथा अपनी पराजय का यथावत्‌ वृत्तान्त उन दोनों देवेश्वरों से विस्तार पूर्वक कह सुनाया॥ ५॥ वे बोले–‘ भगवन्‌! महिषासुर सूर्य, इन्द्र, अग्नि, वायु, चन्द्रमा, यम, वरुण तथा अन्य देवताओं के भी अधिकार छीनकर स्वयं ही सबका अधिष्ठाता बना बैठा है ॥ ६ ॥ उस दुरात्मा महिष ने समस्त देवताओं को स्वर्ग से निकाल दिया है। अब वे मनुष्यों की भाँति पृथ्वी पर विचरते हैं॥ ७॥ देत्यों की यह सारी करतूत हमने आप लोगों से कह सुनायी। अब हम आपकी ही शरण में आये हैं। उसके वध का कोई उपाय सोचिये’॥ ८ ॥

इस प्रकार देवताओं के वचन सुनकर भगवान्‌ विष्णु ओर शिवने दैत्यों पर बड़ा क्रोध किया। उनकी भौंहें तन गयीं और मुँह टेढ़ा हो गया ॥ ९ ॥ तब अत्यन्त कोप में भरे हुए चक्रपाणि श्रीविष्णु के मुख से एक महान्‌ तेज प्रकट हुआ। इसी प्रकार ब्रह्मा, शंकर तथा इन्द्र आदि अन्यान्य देवताओं के शरीर से भी बड़ा भारी तेज निकला। वह सब मिलकर एक हो गया॥ १०-११॥ महान्‌ तेज का वह पुञ्ज जाज्वल्यमान पर्वत-सा जान पड़ा। देवताओं ने देखा, वहाँ उसकी ज्वालाएँ सम्पूर्ण दिशाओं में व्याप्त हो रही थीं॥ १२ ॥ सम्पूर्ण देवताओं के शरीर से प्रकट हुए उस तेज की कहीं तुलना नहीं थी। एकत्रित होने पर वह एक नारी के रूप में परिणत हो गया और अपने प्रकाश से तीनों लोकों में व्याप्त जान पड़ा ॥ १३ ॥ भगवान शंकर का जो तेज था, उससे उस देवीका मुख प्रकट हुआ। यमराज के तेज से उसके सिर में बाल निकल आये। श्रीविष्णुभगवान के तेज से उसकी भुजाए उत्पन्न हुईं॥ १४॥

चन्द्रमा के तेज से दोनों स्तनों का और इन्द्र के तेज से मध्यभाग-( कटिप्रदेश- ) का प्रादुर्भाव हुआ। वरुण के तेज से जंघा और पिंडली तथा पृथ्वी के तेज से नितम्ब भाग प्रकट हुआ॥ १५ ॥ ब्रह्मा के तेज से दोनों चरण और सूर्य के तेज से उनकी अँगुलियाँ हुईं। वसुओं के तेज से हाथों की अँगुलियाँ और कुबेर के तेज से नासिका प्रकट हुई॥ १६॥ उस देवी के दाँत प्रजापति के तेज से ओर तीनों नेत्र अग्नि के तेजसे प्रकट हुए थे॥ १७॥ उसकी भौहें संध्या के और कान वायु के तेज से उत्पन्न हुए थे। इसी प्रकार अन्याय देवताओं के तेज से भी उस कल्याणमयी देवी का आविर्भाव हुआ ॥ १८ ॥

तदनन्तर समस्त देवताओं के तेज पुंज से प्रकट हुई देवी को देखकर महिषासुर के सताये हुए देवता बहुत प्रसन्न हुए॥ १९ ॥ पिनाकधारी भगवान शंकर ने अपने शूल से एक शूल निकालकर उन्हें दिया; फिर भगवान्‌ विष्णु ने भी अपने चक्र से चक्र उत्पन्न करके भगवती को अर्पण किया ॥ २० ॥ वरुण ने भी शंख भेंट किया, अग्रि ने उन्हें शक्ति दी और वायु ने धनुष तथा बाण से भरे हुए दो तरकस प्रदान किये॥ २१॥ सहस्त्र नेत्रों वाले देवराज इन्द्र ने अपने वज्र से वज्र उत्पन्न करके दिया और ऐरावत हाथी से उतारकर एक घण्टा भी प्रदान किया ॥ २२ ॥ यमराज ने कालदण्ड से दण्ड, वरुण ने पाश, प्रजापति ने स्फटिकाक्षकी माला तथा ब्रह्माजी ने कमण्डलु भेंट किया॥ २३॥ सूर्य ने देवी के समस्त रोम-कूपों में अपनी किरणों का तेज भर दिया। काल ने उन्हें चमकती हुई ढाल और तलवार दी॥ २४॥। क्षीरसमुद्र ने उज्वल हार तथा कभी जीर्ण न होने वाले दो दिव्य वस्त्र भेंट किये। साथ ही उन्होंने दिव्य चूडामणि, दो कुण्डल, कड़े, उज्वल अर्धचन्द्र, सब बाहुओं के लिये केयूर, दोनों चरणों के लिये निर्मल नूपुर, गलेकी सुन्दर हँसली और सब अगुलियों में पहननेके लिये रत्नरोंकी बनी अँगूठियाँ भी दीं। विश्वकर्माने उन्हें अत्यन्त निर्मल फरसा भेंट किया॥ २५–२७॥ साथ ही अनेक प्रकारके अस्त्र और अभेद्य कवच दिये; इनके सिवा मस्तक और वक्षःस्थलपर धारण करनेके लिये कभी न कुम्हलानेवाले कमलोंकी मालाएँ दीं॥२८॥ जलधिने उन्हें सुन्दर कमलका फूल भेंट किया। हिमालयने सवारीके लिये सिंह तथा भाँति-भाँति के रत्न समर्पित किये॥ २९॥ धनाध्यक्ष कुबेरने मधुसे भरा पानपात्र दिया तथा सम्पूर्ण नागोंके राजा शेषने, जो इस पृथ्वीको धारण करते हैं, उन्हें बहुमूल्य मणियोंसे विभूषित नागहार भेंट दिया। इसी प्रकार अन्य देवताओंने भी आभूषण और अस्त्र-शस्त्र देकर देवीका सम्मान किया। तत्पश्चात्‌ उन्होंने बारंबार अट्टहासपूर्वक उच्चस्वरसे गर्जना की। उनके भयंकर नादसे सम्पूर्ण आकाश गूँज उठा॥ ३०–३२॥ देवीका वह अत्यन्त उच्चस्वरसे किया हुआ सिंहनाद कहीं समा न सका, आकाश उसके सामने लघु प्रतीत होने लगा। उससे बड़े जोरकी प्रतिध्वनि हुई, जिससे सम्पूर्ण विश्वमें हलचल मच गयी और समुद्र कॉप उठे॥ ३३॥ पृथ्वी डोलने लगी और समस्त पर्वत हिलने लगे। उस समय देवताओंने अत्यन्त प्रसन्नताके साथ सिंहवाहिनी भवानीसे कहा–‘देवि! तुम्हारी जय हो ‘॥ ३४॥ साथ ही महए्षियोंने भक्तिभावसे विनग्र होकर उनका स्तवन किया।

सम्पूर्ण त्रिलोकीको क्षोभग्रस्त देख देत्यगण अपनी समस्त सेनाको कवच आदिसे सुसज्जित कर, हाथोंमें हथियार ले सहसा उठकर खड़े हो गये। उस समय महिषासुर ने बड़े क्रोध में आकर कहा–‘आः! यह क्‍या हो रहा है ?’ फिर वह सम्पूर्ण असुरों से घिर कर उस सिंहनाद की ओर लक्ष्य करके दोड़ा और आगे पहुँचकर उसने देवी को देखा, जो अपनी प्रभा से तीनों लोकों को प्रकाशित कर रही थीं॥ उनके चरणों के भार से पृथ्वी दबी जा रही थी। माथे के मुकुट से आकाश में रेखा-सी खिंच रही थी तथा वे अपने धनुष की टड्ढार से सातों पातालों को क्षुब्ध किये देती थीं॥ देवी अपनी हजारों भुजाओं से सम्पूर्ण दिशाओं को आच्छादित करके खड़ी थीं। तदनन्तर उनके साथ देत्यों का युद्ध छिड़ गया॥ नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों के प्रहार से सम्पूर्ण दिशाएँ उद्धासित होने लगीं। चिक्षुर नामक महान्‌ असुर महिषासुर का सेनानायक था॥ वह देवीके साथ युद्ध करने लगा। अन्य देत्यों की चतुरड्रिणी सेना साथ लेकर चामर भी लड़ने लगा। साठ हजार रथियों के साथ आकर उठग्र नामक महादेत्यने लोहा लिया॥ एक करोड़ रथियों को साथ लेकर महाहनु नामक देत्य युद्ध करने लगा। जिसके रोए तलवार के समान तीखे थे, वह असिलोमा नामका महादेत्य पाँच करोड़ रथी सैनिकों सहित युद्ध में आ डटा॥ साठ लाख रथियों से घिरा हुआ बाष्कल नामक देत्य भी उस युद्धभूमिमें लड़ने लगा। परिवारित नामक राक्षस हाथीसवार ओर घुड़सवारों के अनेक दलों तथा एक करोड़ रथियों की सेना लेकर युद्ध करने लगा। बिडाल नामक देत्य पाँच अरब रथियों से घिरकर लोहा लेने लगा। इनके अतिरिक्त और भी हजारों महादेत्य रथ, हाथी और घोड़ों की सेना साथ लेकर वहाँ देवीके साथ युद्ध करने लगे। स्वयं महिषासुर उस रणभूमि में कोटि-कोटि सहस्त्र रथ, हाथी ओर घोड़ों की सेना से घिरा हुआ खड़ा था। वे देत्य देवी के साथ तोमर, भिन्दिपाल, शक्ति, मूसल, खड़्ग, परशु और पट्टिश आदि अस्त्र-शस्त्रों का प्रहार करते हुए युद्ध कर रहे थे। कुछ देत्यों ने उनपर शक्ति का प्रहार किया, कुछ लोगों ने पाश फेंके ॥ तथा कुछ दूसरे देत्यों ने खड़्गप्रहार करके देवी को मार डालने का उद्योग किया। देवी ने भी क्रोध में भरकर खेल-खेलमें ही अपने अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा करके देत्यों के वे समस्त अस्त्र-शस्त्र काट डाले। उनके मुख पर परिश्रम या थकावट का रंच मात्र भी चिह्न नहीं था, देवता और ऋषि उनकी स्तुति करते थे ओर वे भगवती परमेश्वरी देत्यों के शरीरों पर अस्त्र-शस्त्रों की वर्षा करती रहोीं।

देवी का वाहन सिंह भी क्रोध में भरकर गर्दनके बालों को हिलाता हुआ असुरों को सेना में इस प्रकार विचरने लगा, मानो बनों में दावानल फेल रहा हो। रणभूमि में देत्योंके साथ युद्ध करती हुई अम्बिका देवी ने जितने निःश्वास छोड़े, वे सभी तत्काल सैकड़ों-हजारों गणों के रूप में प्रकट हो गये और परशु, भिन्दिपाल, खड़्ग तथा पट्टिश आदि अस्त्रों द्रारा असुरों का सामना करने लगे॥ देवी की शक्ति से बढ़े हुए वे गण असुरों का नाश करते हुए नगाड़ा और शट्डग आदि बाजे बजाने लगे॥ उस संग्राम-महोत्सव में कितने ही गण मृदड्ग बजा रहे थे। तदनन्तर देवी ने त्रिशूल से, गदा से, शक्ति की वर्षा से और खड़्ग आदि से सैकड़ों महादैत्यों का संहार कर डाला। कितनों को घण्टे के भयंकर नाद से मूच्छित करके मार गिराया॥ बहुते रे देत्योंको पाश से बॉधकर धरती पर घसीटा। कितने ही दैत्य उनकी तीखी तलवार की मार से दो-दो टुकड़े हो गये॥ कितने ही गदा की चोट से घायल हो धरती पर सो गये। कितने ही मूसल की मार से अत्यन्त आहत होकर रक्त वमन करने लगे। कुछ देत्य शूल से छाती फट जाने के कारण पृथ्वी पर ढेर हो गये। उस रणाड्ुण में बाण समूहों की वृष्टि से कितने ही असुरों की कमर टूट गयी॥ बाज की तरह झपटने वाले देव पीडक देत्यगण अपने प्राणों से हाथ धोने लगे। किन्हीं की बाहें छिन्न-भिन्न हो गयीं। कितनों की गर्दनें कट गयीं। कितने ही देत्यों के मस्तक कट-कटकर गिरने लगे। कुछ लोगों के शरीर मध्य भाग में ही विदीर्ण हो गये। कितने ही महादैत्य जाँघें कट जानेसे पृथ्वी पर गिर पड़े। कितनों को ही देवी ने एक बॉह, एक पैर और एक नेत्र वाले करके दो टुकड़ों में चीर डाला। कितने ही देत्य मस्तक कट जाने पर भी गिरकर फिर उठ जाते और केवल धड़के ही रूप में अच्छे-अच्छे हथियार हाथ में ले देवी के साथ युद्ध करने लगते थे। दूसरे कबन्ध युद्ध के बाजों की लय पर नाचते थे। कितने ही बिना सिर के धड़ हाथों में खड़्ग, शक्ति ओर ऋष्टि लिये दौड़ते थे तथा दूसरे-दूसरे महादेत्य ‘ठहरो! ठहरो!!’ यह कहते हुए देवी को युद्ध के लिये ललकारते थे। जहाँ वह घोर संग्राम हुआ था, वहॉ की धरती देवी के गिराये हुए रथ, हाथी, घोड़े और असुरों की लाशों से ऐसी पट गयी थी कि वहाँ चलना-फिरना असम्भव हो गया था॥ देत्यों की सेना में हाथी, घोड़े और असुरों के शरीरों से इतनी अधिक मात्रा में रक्तपा हुआ था कि थोड़ी ही देर में वहाँ खून की बड़ी-बड़ी नदियाँ बहने लगीं॥ जगदम्बाने असुरोंकी विशाल सेना को क्षणभर में नष्ट कर दिया–ठीक उसी तरह, जैसे तृण और काठ के भारी ढेर को आग कुछ ही क्षणों में भस्म कर देती है॥ और वह सिंह भी गर्दन के बालों को हिला-हिलाकर जोर-जोर से गर्जना करता हुआ देत्यों के शरीरों से मानो उनके प्राण चुने लेता था॥ वहाँ देवी के गणों ने भी उन महादैत्यों के साथ ऐसा युद्ध किया, जिस से आकाश में खड़े हुए देवतागण उन पर बहुत संतुष्ट हुए और फूल बरसाने लगे॥

इस प्रकार श्रीमार्कण्डेयपुराणमें सावर्णिक मन्वन्तरकी कथाके अन्तर्गत देवीमाहात्म्यमें "महिषासुरकी सेना का वध" नामक दूसरा अध्याय पूरा हुआ ॥ २ ॥