ग्यारहवाँ अध्याय : देवताओं द्वारा देवी की स्तुति तथा देवी द्वारा देवताओं को वरदान

****** ध्यान ******

में भुवनेश्वरी देवी का ध्यान करता (करती ) हूँ। उनके श्रीअड्रोंकी आभा प्रभात काल के सूर्य के समान है और मस्तक पर चन्द्रमा का मुकुट है। वे उभरे हुए स्तनों और तीन नेत्रोंसे युक्त हैं।उनके मुख पर मुसकान की छटा छायी रहती है और हाथोंमें वरद,अद्जुश, पाश एवं अभय-मुद्रा शोभा पाते हैं।

ऋषि कहते हैं–देवी के द्वारा वहाँ महादैत्यपति शुम्भके मारे जानेपर इन्द्र आदि देवता अग्निको आगे करके उन कात्यायनी देवी को स्तुति करने लगे। उस समय अभीष्ट की प्राप्ति होने से उनके
मुख कमल दमक उठे थे और उनके प्रकाश से दिशाएँ भी जगमगा उठी थीं॥ देवता बोले–शरणागत की पीड़ा दूर करने वाली देवि! हम पर प्रसन्न हो ओ। सम्पूर्ण जगत् ‌की माता! प्रसन्न होओ। विश्वेश्वरि! विश्व की रक्षा करो। देवि! तुम्हीं चराचर जगत् ‌की अधी श्वरी हो॥ तुम इस जगत्‌का एकमात्र आधार हो; क्योंकि पृथ्वी रूप में तुम्हारी ही स्थिति है। देवि! तुम्हारा पराक्रम अलड्डनीय | तुम्हीं जल रूप में स्थित होकर सम्पूर्ण जगत्‌ को तृप्त करती तुम अनन्त बल सम्पन्न वैष्णवी शक्ति हो। इस विश्वकी कारण भूता परा माया हो। देवि! तुमने इस समस्त जगत्‌ को मोहित कर रखा है। तुम्हीं प्रसन्न होने पर इस पृथ्वी पर मोक्षकी प्राप्ति कराती देवि! सम्पूर्ण विद्याएँ तुम्हारे ही भिन्न-भिन्न स्व रूप हैं।

जगतू में जितनी स्त्रियाँ हैं, वे सब तुम्हारी ही मूर्तियाँ हैं। जगदम्ब! एकमात्र तुमने ही इस विश्वको व्याप्त कर रखा है। तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है ? तुम तो स्तवन करने योग्य पदार्थोसे परे एवं
परा वाणी हो॥

जब तुम सर्व स्व रूपा देवी स्वर्ग तथा मोक्ष प्रदान करने वाली हो, तब इसी रूपमें तुम्हारी स्तुति हो गयी। तुम्हारी स्तुति के लिये इससे अच्छी उक्तियाँ और क्‍या हो सकती हैं ? बुद्धि रूप से सब लोगों के हृदय में विराजमान रहनेवाली तथा स्वर्ग एवं मोक्ष प्रदान करने वाली नारायणी देवि! तुम् हें नमस्कार है॥ कला, काष्ठा आदि के रूप से क्रमशः परिणाम-( अवस्था-परिवर्तन- ) की ओर ले जाने वाली तथा विश्व का उपसंहार करनेमें समर्थ नारायणी! तुम्हें नमस्कार है॥ नारायणी! तुम सब प्रकार का मड़ल प्रदान करने वाली मड्गनलमयी हो । कल्याणदायिनी शिवा हो। सब पुरुषार्थो को सिद्ध करने वाली, शरणागतवत्सला, तीन नेत्रोंव बाली एवं गौरी हो। तुम्हें नमस्कार है ॥ १० ॥ तुम सृष्टि, पालन और संहार की शक्ति भूता, सनातनी देवी, गुणों का आधार तथा सर्वगुणमयी हो। नारायणि! तुम् हें नमस्कार है॥ शरण में आये हुए दीनों एवं पीड़ितों की रक्षा में संलग्र रहने वाली तथा सब की पीड़ा दूर करने वाली नारायणी देवी! तुम्हें नमस्कार है॥ नारायणि! तुम ब्रह्माणी का रूप धारण करके हंसों से जुते हुए विमानपर बैठती तथा कुश-मिश्रित जल छिड़कती रहती हो। तुम्हें नमस्कार है॥ माहे श्वरी रूप से त्रिशूल, चन्द्रमा एवं सर्प को धारण करनेवाली तथा महान्‌ वषभ की पीठ पर बैठने वाली नारायणी देवी! तुम्हें नमस्कार है॥ मोरों और मुर्गों से घिरी रहने वाली तथा महाशक्ति धारण करने वाली जगतू में जितनी स्त्रियाँ हैं, वे सब तुम्हारी ही मूर्तियाँ हैं। जगद म्ब! एक मात्र तुमने ही इस विश्व को व्याप्त कर रखा है। तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है ? तुम तो स्तवन करने योग्य पदार्थो से परे एवं परा वाणी हो॥

जब तुम सर्व स्वरूपा देवी स्वर्ग तथा मोक्ष प्रदान करने वाली हो, तब इसी रूप में तुम्हारी स्तुति हो गयी। तुम्हारी स्तुति के लिये इससे अच्छी उक्तियाँ और क्‍या हो सकती हैं ? बुद्धि रूप से सब लोगों के हृदय में विराजमान रहने वाली तथा स्वर्ग एवं मोक्ष प्रदान करने वाली नारायणी देवि! तुम्हें नमस्कार है॥ कला, काष्ठा आदि के रूप से क्रमशः परिणाम-( अवस्था-परिवर्तन- ) की ओर ले जाने वाली तथा विश्व का उपसंहार करने में समर्थ नारायणी! तुम् हें नमस्कार है॥ नारायणी! तुम सब प्रकार का मड़ल प्रदान करने वाली मड्गनलमयी हो । कल्याण दायिनी शिवा हो। सब पुरुषार्थो को सिद्ध करनेवाली, शरणागतवत्सला, तीन नेत्रोंव बाली एवं गौरी हो। तुम्हें नमस्कार है ॥ तुम सृष्टि, पालन और संहार की शक्तिभूता, सनातनी देवी, गुणों का आधार तथा सर्व गुणमयी हो। नारायणि! तुम् हें नमस्कार है॥ ११॥ शरण में आये हुए दीनों एवं पीड़ितों की रक्षा में संलग्र रहने वाली तथा सब की पीड़ा दूर करने वाली नारायणी देवी! तुम्हें नमस्कार है॥ नारायणि! तुम ब्रह्माणीका रूप धारण करके हंसों से जुते हुए विमान पर बैठती तथा कुश-मिश्रित जल छिड़कती रहती हो। तुम्हें नमस्कार है॥ माहे श्वरी रूप से त्रिशूल, चन्द्रमा एवं सर्पको धारण करने वाली तथा महान्‌ वषभ की पीठ पर बैठने वाली नारायणी देवी! तुम्हें नमस्कार है॥ मोरों और मुर्गों से घिरी रहने वाली तथा महाशक्ति धारण करने वाली कौमारी रूपधारिणी निष्पापे नारायणि! तुम् हें नमस्कार है॥ शद्भु, चक्र, गदा और शार्ड्र धनुष रूप उत्तम आयुधों को धारण करने वाली वैष्णवी शक्ति रूपा नारायणि! तुम प्रसन्न हो ओ। तुम् हें नमस्कार है॥ हाथ में भयानक महाचक्र लिये और दाढ़ोंपर धरती को उठाये वाराही रूप धारिणी कल्याणमयी नारायणि! तुम् हें नमस्कार है॥ भयंकर नृसिंह रूप से देत्यों के वध के लिये उद्योग करने वाली तथा त्रिभुवन की रक्षा में संलग्न रहने वाली नारायणि। तुम् हें नमस्कार है॥ मस्तक पर किरीट और हाथ में महावज्र धारण करने वाली, सहतस्त्र नेत्रों के कारण उद्दीमप्त दिखायी देने वाली और वृत्रासुर के प्राणों का अपहरण करने वाली इन्द्र शक्ति रूपा नारायणी देवि! तुम् हें नमस्कार है॥ शिवदूती रूप से देत्यों की महती सेना का संहार करने वाली, भयंकर रूप धारण तथा विकट गर्जना करने वाली नारायणि तुम्हें नमस्कार है॥ दाढ़ों के कारण विकराल मुख वाली मुण्डमाला से विभूषित मुण्डमर्दिनी चामुण्डारूपा नारायणि! तुम् हें नमस्कार है॥ लक्ष्मी, लज्जा, महा विद्या, श्रद्धा, पुष्टि, स्वधा, श्लुवा, महारात्रि तथा महा अविद्या रूपा नारायणि! तुम् हें नमस्कार है॥ मेधा, सरस्वती, वरा ( श्रेष्ठा ), भूति ( ऐश्वर्यरूपा ), बाभ्रवी ( भूरे रंगकी अथवा पार्वती ), तामसी ( महाकाली ), नियता ( संयमपरायणा ) तथा ईशा-( सबकी अधीश्वरी ) रूपिणी नारायणि! तुम् हें नमस्कार है॥ सर्व स्व रूपा, सर्वेश्वरी तथा सब प्रकार की शक्तियों से सम्पन्न दिव्य रूपा दुर्गे देवि! सब भयों से हमारी रक्षा करो; तुम् हें नमस्कार है॥ कात्यायनी! यह तीन लोचनों से विभूषित तुम्हारा सोम्य मुख सब प्रकार के भयों से हमारी रक्षा करे। तुम् हें नमस्कार है॥ भद्गर काली! ज्वालाओं के कारण विकराल प्रतीत होने वाला, अत्यन्त भयंकर और समस्त असुरों का संहार करने वाला तुम्हारा त्रिशूल भय से हमें बचाये। तुम्हें नमस्कार है॥ देवि! जो अपनी ध्वनि से सम्पूर्ण जगत् ‌को व्याप्त कर के देत्यों के तेज नष्ट किये देता है, वह तुम्हारा घण्टा हमलोगों की पापों से उसी प्रकार रक्षा करे, जैसे माता अपने पुत्रों की बुरे कर्मों से रक्षा करती है॥। चण्डि के! तुम्हारे हाथों में सुशोभित खड़्ग, जो असुरों के रक्त और चर्बी से चर्चित है, हमारा मड्गल करे। हम तुम् हें नमस्कार करते हैं॥ देवि! तुम प्रसन्न होने पर सब रोगों को नष्ट कर देती हो और कुपित होने पर मनो वाओ्छित सभी कामनाओं का नाश कर देती हो। जो लोग तुम्हारी शरण में जा चुके हैं, उन पर विपत्ति तो आती ही नहीं । तुम्हारी शरण में गये हुए मनुष्य दूसरों को शरण देनेवाले हो जाते हैं॥ देवि! अम्बि के! तुमने अपने स्वरूप को अनेक भागों में विभक्त करके नाना प्रकारके रूपों से जो इस समय इन धर्मद्रोही महादेत्यों का संहार किया है, वह सब दूसरी कौन कर सकती थी ?॥ विद्याओं में, ज्ञान को प्रकाशित करने वाले शास्त्रों में तथा आदिवाक्यों-( वेदों- ) में तुम्हार सिवा और किसका वर्णन है ? तथा तुमको छोड़कर दूसरी कौन ऐसी शक्ति है, जो इस विश्वको अज्ञानमय घोर अन्धकारसे परिपूर्ण ममतारूपी गढ़ेमें निरन्तर भटका रही हो॥

लोग भक्तिपूर्वक तुम्हारे सामने मस्तक झुकाते हैं, वे सम्पूर्ण विश्वको आश्रय देनेवाले होते हैं॥ ३३॥ देवि! प्रसन्न होओ। जैसे इस समय असुरोंका वध करके तुमने शीघ्र ही हमारी रक्षा की है, उसी प्रकार सदा हमें शत्रुओंके भयसे बचाओ। सम्पूर्ण जगत्‌का पाप नष्ट कर दो और उत्पात एवं पापोंके फलस्वरूप प्राप्त होनेवाले महामारी आदि बड़े-बड़े उपद्रवोंको शीघ्र दूर करो॥
विश्व की पीड़ा दूर करने वाली देवि! हम तुम्हारे चरणों पर पड़े हुए हैं, हम पर प्रसन्न हो ओ। त्रि लोक निवासियों की पूजनीया परे श्रारि! सब लोगोंको वरदान दो॥

देवी बोलीं— देवताओ! मैं वर देनेको तैयार हूँ। तुम्हारे मनमें जिसकी इच्छा हो, वह वर माँग लो। संसारके लिये उस उपकारक वरको मैं अवश्य दूँगी॥ ३७॥

देवता बोले— सर्वे श्वरि! तुम इसी प्रकार तीनों लोकों की समस्त बाधाओं को शान्त करो और हमारे शत्रुओं का नाश करती रहो॥

देवी बोलीं— देवताओ! बैवस्वत मन्वन्तर के अट्टाईसवें युग में शुम्भ और निशुम्भ नाम के दो अन्य महादेत्य उत्पन्न होंगे। तब मैं नन्दगोप के घ रमें उनकी पत्नी यशोदा के गर्भ से अवतीर्ण हो विन्ध्याचल में जाकर रहूँगी और उक्त दोनों असुरों का नाश करूँंगी॥ फिर अत्यन्त भयंकर रूपसे पृथ्वीपर अवतार ले मैं विप्रचित्ति नाम वाले दानवों का वध करूँगी॥ उन भयंकर महादैत्यों को भक्षण करते समय मेरे दाँत अनारके फूल की भाँति लाल हो जायँगे॥ तब स्वर्गमें देवता और मर्त्य लोक में मनुष्य सदा मेरी स्तुति करते हुए मुझे ‘रक्तदन्ति का ‘ कहेंगे॥

जहाँ राक्षस, जहाँ भयंकर विषवाले सर्प, जहाँ शत्रु, जहाँ लुटेरोंकी सेना और जहाँ दावानल हो, वहाँ तथा समुद्रके बीचमें भी साथ रहकर तुम विश्वकी रक्षा करती हो॥ ३२॥ विश्वेश्वरि! तुम विश्वका पालन करती हो। विश्वरूपा हो, इसलिये सम्पूर्ण विश्वको धारण करती हो। तुम भगवान्‌ विश्वनाथकी भी वन्दनीया हो। जो लोग भक्तिपूर्वक तुम्हारे सामने मस्तक झुकाते हैं, वे सम्पूर्ण विश्वको आश्रय देनेवाले होते हैं॥ ३३॥ देवि! प्रसन्न होओ। जैसे इस समय असुरोंका वध करके तुमने शीघ्र ही हमारी रक्षा की है, उसी प्रकार सदा हमें शत्रुओंके भयसे बचाओ। सम्पूर्ण जगत्‌का पाप नष्ट कर दो और उत्पात एवं पापोंके फलस्वरूप प्राप्त होनेवाले महामारी आदि बड़े-बड़े उपद्रवोंको शीघ्र दूर करो॥ ३४॥

विश्वकी पीड़ा दूर करनेवाली देवि! हम तुम्हारे चरणोंपर पड़े हुए हैं, हमपर प्रसन्न होओ। त्रिलोकनिवासियोंकी पूजनीया परमेश्वरि! सब लोगोंको वरदान दो॥ ३५॥

देवी बोलीं— ॥ ३६ ॥ देवताओ! मैं बर देनेको तैयार हूँ। तुम्हारे मनमें जिसकी इच्छा हो, वह वर माँग लो। संसारके लिये उस उपकारक वरको मैं अवश्य दूँगी॥ ३७॥

देवता बोले— ॥ ३८ ॥ सर्वेश्वरि! तुम इसी प्रकार तीनों लोकोंकी समस्त बाधाओंको शान्त करो और हमारे शत्रुओंका नाश करती रहो॥ ३९॥

देवी बोलीं— ॥ ४० ॥ देवताओ! बैवस्वत मन्वन्तरके अट्टाईसवें युगमें शुम्भ और निशुम्भ नामके दो अन्य महादेत्य उत्पन्न होंगे। ४१ ॥ तब में नन्दगोपके घरमें उनकी पत्नी यशोदाके गर्भसे अवतीर्ण हो विन्ध्याचलमें जाकर रहूँगी और उक्त दोनों असुरोंका नाश करूँंगी॥ ४२ ॥ फिर अत्यन्त भयंकर रूपसे पथ्वीपर अवतार ले मैं विप्रचित्ति नामवाले दानवोंका वध करूँगी॥ ४३॥ उन भयंकर महादैत्योंको भक्षण करते समय मेरे दाँत अनारके फूलकी भाँति लाल हो जायँंगे॥ ४४॥ तब स्वर्गमें देवता और मर्त्यलोकमें मनुष्य सदा मेरी स्तुति करते हुए मुझे ‘रक्तदन्तिका ‘ कहेंगे॥ ४५॥ फिर जब पृथ्वीपर सौ वर्षोके लिये वर्षा रुक जायगी और पानीका अभाव हो जायगा, उस समय मुनियोंके स्तवन करनेपर में पृथ्वीपर अयोनिजारूपमें प्रकट होऊँगी।॥ ४६॥ और सौ नेत्रोंसे मुनियोंको देखूँगी। अत: मनुष्य ‘शताक्षी ‘ इस नामसे मेरा कीर्तन करेंगे॥ ४७॥ देवताओ! उस समय में अपने शरीरसे उत्पन्न हुए शाकोंद्वारा समस्त संसारका भरण-पोषण करूँंगी। जबतक वर्षा नहीं होगी, तबतक वे शाक ही सबके प्राणोंकी रक्षा करेंगे। ४८॥ ऐसा करनेके कारण पृथ्वीपर ‘शाकम्भरी ‘ के नामसे मेरी ख्याति होगी। उसी अवतारमें मैं दुर्गण नामक महादैत्यका वध भी करूँगी॥ ४९ ॥ इससे मेरा नाम ‘दुर्गादेवी ‘ के रूपसे प्रसिद्ध होगा। फिर में जब भीमरूप धारण करके मुनियोंकी रक्षाके लिये हिमालयपर रहनेवाले राक्षसोंका भक्षण करूँगी, उस समय सब मुनि भक्तिसे नतमस्तक होकर मेरी स्तुति करेंगे। ५०-५१॥ तब मेरा नाम ‘भीमादेवी’ के रूपमें विख्यात होगा । जब अरुण नामक देत्य तीनों लोकोंमें भारी उपद्रव मचायेगा॥ ५२॥ तब में तीनों लोकोंका हित करनेके लिये छः: पैरोंवाले असंख्य भ्रमरोंका रूप धारण करके उस महादैत्यका वध करूँंगी॥ ५३ ॥ उस समय सब लोग ‘ भ्रामरी ‘ के नामसे चारों ओर मेरी स्तुति करेंगे। इस प्रकार जब-जब संसारमें दानवी बाधा उपस्थित होगी, तब-तब अवतार लेकर मैं शत्रुओंका संहार करूँंगी॥ ५४-५५॥

इस प्रकार श्रीमार्कण्डेयपुराणमें सावर्णिक मन्वन्तरकी कथाके अन्तर्गत देवीमाहात्य्यमें देवीस्तृति नामक ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हआ॥ ११ ॥