पाँचवाँ अध्याय : देवताओंद्वारा देवीकी स्तुति, चण्ड-मुण्डके मुखसे अम्बिकाके रूपको प्रशंसा सुनकर शुम्भका उनके पास दूत भेजना ओर दूतका निराश लोटना

****** विनियोग ******

इस उत्तर चरित्र के रुद्र ऋषि हैं, महासरस्वती देवता हैं, अनुष्टप्‌ छन्‍द है, भीमा शक्ति है, भ्रामरी बीज है, सूर्य तत्त्व है और सामवेद स्वरूप है । महासरस्वती की प्रसन्नता के लिये उत्तर चरित्र के पाठ में इसका विनियोग किया जाता है।

****** ध्यान ******

जो अपने करकमलों में घण्टा, शूल, हल, शंख, मूसल, चक्र, धनुष और बाण धारण करती हैं, शरद-ऋतु के शोभा सम्पन्न चन्द्रमा के समान जिनकी मनोहर कान्ति है, जो तीनों लोकों की आधारभूता और शुम्भ आदि देत्यों का नाश करने वाली हैं तथा गोरी के शरीर से जिनका प्राकट्य हुआ है, उन महासरस्वती देवी का मैं निरन्तर भजन करता (करती) हूँ।

ऋषि कहते हैं–॥ १ ॥ पूर्वकाल में शुम्भ ओर निशुम्भ नामक असुरों ने अपने बल के घमंड में आकर शचीपति इन्द्र के हाथ से तीनों लोकों का राज्य और यज्ञभाग छीन लिये॥ २॥ वे ही दोनों सूर्य, चन्द्रमा, कुबेर, यम ओर वरुण के अधिकार का भी उपयोग करने लगे। वायु ओर अग्नि का कार्य भी वे ही करने लगे। उन दोनों ने सब देवताओं को अपमानित, राज्यशभ्रष्ट, पराजित तथा अधिकारहीन करके स्वर्ग से निकाल दिया। उन दोनों महान्‌ असुरों से तिरस्कृत देवताओं ने अपराजिता देवी का स्मरण किया और सोचा– ‘जगदम्बाने हमलोगों को वर दिया था कि आपत्तिकाल में स्मरण करने पर में तुम्हारी सब आपत्तियों का तत्काल नाश कर दूगी’॥ ३–६॥ यह विचार कर देवता गिरिराज हिमालय पर गये और वहाँ भगवती विष्णुमाया की स्तुति करने लगे॥ ७॥

देवता बोले–॥ ८ ॥ देवी को नमस्कार है, महादेवी शिवा को सर्वदा नमस्कार है। प्रकृति एवं भद्रा को प्रणाम है। हमलोग नियम पूर्वक जगदम्बा को नमस्कार करते हैं॥ ९ ॥ रोद्रा को नमस्कार है। नित्या, गोरी एवं धात्री को बारम्बार नमस्कार है। ज्योत्सत्नामयी, चन्द्ररूपिणी एवं सुखस्वरूपा देवी को सतत प्रणाम है॥ १०॥ शरणागतों का कल्याण करने वाली वृद्धि एवं सिद्धिरूपा देवी को हम बारम्बार नमस्कार करते हैं। नेऋती (राक्षसोंकी लक्ष्मी ), राजाओं की लक्ष्मी तथा शर्वाणी (श़िवपत्नी)-स्वरूपा आप जगदम्बा को बार-बार नमस्कार है॥ ११॥ दुर्गा, दुर्गपारा ( दुर्गम संकटसे पार उतारने वाली ), सारा ( सबको सारभूता ), सर्वकारिणी, ख्याति, कृष्णा ओर धूमप्रादेवी को सर्वदा नमस्कार है॥ १२॥ अत्यन्त सौम्य तथा अत्यन्त रौद्ररूपा देवी को हम नमस्कार करते हैं, उन्हें हमारा बारम्बार प्रणाम है। जगत्‌की आधारभूता कृति देवी को बारम्बार नमस्कार है॥ १३॥ जो देवी सब प्राणियों में विष्णमाया के नाम से कही जाती हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥ १४–१६॥ जो देवी सब प्राणियोंमें चेतना कहलाती हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥ १७–१९॥ जो देवी सब प्राणियोंमें बुद्धिरूपसे स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है।॥ २०–२२॥ जो देवी सब प्राणियों में निद्रारूपसे स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥ २३–२५॥ जो देवी सब प्राणियोंमें क्षुधारूपसे स्थित हें, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥ २६– २८ ॥ जो देवी सब प्राणियोंमें छायारूपसे स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥ २९–३१ ॥ जो देवी सब प्राणियोंमें शक्तिरूपसे स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥ ३२–३४॥ जो देवी सब प्राणियोंमें तृष्णारूपसे स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥ ३५–३७॥ जो देवी सब प्राणियोंमें क्षान्ति-( क्षमा- ) रूपसे स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥ ३८–४० ॥ जो देवी सब प्राणियोंमें जातिरूपसे स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥ ४१–४३॥ जो देवी सब प्राणियोंमें लज्जारूपसे स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥ ४४–४६॥ जो देवी सब प्राणियोंमें शान्तिरूपसे स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥ ४७–४९॥ जो देवी सब प्राणियोंमें श्रद्धारूपसे स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥ ५०– ७५२ ॥ जो देवी सब प्राणियोंमें कान्तिरूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥ ५३–५५ ॥ जो देवी सब प्राणियोंमें लक्ष्मीरूप से स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥ ५६–५८ ॥ जो देवी सब प्राणियोंमें वत्तिरूपसे स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥ ५९–६१॥ जो देवी सब प्राणियोंमें स्मृतिरूपसे स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार हैे॥६२–६४॥ जो देवी सब प्राणियोंमें दयारूपसे स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥ ६५–६७॥ जो देवी सब प्राणियोंमें तुष्टिरूपसे स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥ ६८–७०॥ जो देवी सब प्राणियोंमें मातारूपसे स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥ ७१–७३॥ जो देवी सब प्राणियोमें भ्रान्तिरूपसे स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥ ७४–७६॥ जो जीवोंके इन्द्रियवर्गकी अधिष्ठात्री देवी एवं सब प्राणियोंमें सदा व्याप्त रहनेवाली हैं, उन व्याप्तिदेवीको बारम्बार नमस्कार है॥ ७७॥ जो देवी चेतन्यरूपसे इस सम्पूर्ण जगत्‌को व्याप्त करके स्थित हैं, उनको नमस्कार, उनको नमस्कार, उनको बारम्बार नमस्कार है॥ ७८–८०॥ पूर्वकालमें अपने अभीष्टकी प्राप्ति होनेसे देवताओंने जिनकी स्तुति की तथा देवराज इन्द्र ने बहुत दिनों तक जिनका सेवन किया, वह कल्याण की साधनभूता ईश्वरी हमारा कल्याण और मड्गल करे तथा सारी आपपत्तियों का नाश कर डाले॥ ८१९ ॥ उहण्ड देत्यों से सताये हुए हम सभी देवता जिन परमेश्वरी को इस समय नमस्कार करते हैं तथा जो भक्तिसे विनप्र पुरुषों द्वारा स्मरण की जाने पर तत्काल ही सम्पूर्ण विपत्तियों का नाश कर देती हैं, वे जगदम्बा हमारा संकट दूर करें॥ ८२॥

ऋषि कहते हैं— ॥ ८३ ॥ राजन्‌! इस प्रकार जब देवता स्तुति कर रहे थे, उस समय पार्वती देवी गड़ाजी के जल में सत्रान करने के लिये वहाँ आयीं॥ ८४॥

उन सुन्दर भौंहों बाली भगवती ने देवताओं से पूछा–‘ आपलोग यहाँ किसकी स्तुति करते हैं ?’ तब उन्हीं के शरीर कोश से प्रकट हुई शिवादेवी बोलीं– ॥ ८५॥ ‘ शुम्भ देत्यसे तिरस्कृत ओर युद्ध में निशुम्भ से पराजित हो यहाँ एकत्रित हुए ये समस्त देवता यह मेरी ही स्तुति कर रहे हैं ‘॥ ८६ ॥ पार्वतीजी के शरीर कोश से अम्बिका का प्रादर्भाव हुआ था, इसलिये वे समस्त लोकों में ‘कौशिकी ‘ कही जाती हैं॥ ८७॥ कोशिकी के प्रकट होने के बाद पार्वती देवी का शरीर काले रंग का हो गया, अतः वे हिमालय पर रहने वाली कालिका देवी के नाम से विख्यात हुईं॥ ८८॥ तदनन्तर शुम्भ- निशुम्भ के भृत्य चण्ड-मुण्ड वहाँ आये और उन्होंने परम मनोहर रूप धारण करने वाली अम्बिका देवी को देखा॥ ८९॥ फिर वे शुम्भ के पास जाकर बोले—‘ महाराज! एक अत्यन्त मनोहर स्‍त्री है, जो अपनी दिव्य कान्ति से हिमालय को प्रकाशित कर रही है॥ ९०॥’ बैसा उत्तम रूप कहीं किसी ने भी नहीं देखा होगा। अस्‌रेश्वर! पता लगाइये, वह देवी कौन है और उसे ले लीजिये॥ ९१॥ स्त्रियों में तो वह रत्न है, उसका प्रत्येक अंग बहुत ही सुन्दर है तथा वह अपने श्री अंगों की प्रभाव से सम्पूर्ण दिशाओं में प्रकाश फेला रही है। देत्ययाज! अभी वह हिमालय पर ही मौजूद है, आप उसे देख सकते हैं॥ ९२॥ प्रभो! तीनों लोकों में मणि, हाथी और घोड़े आदि जितने भी रत्न हैं, वे सब इस समय आपके घर में शोभा पाते हैं॥ ९३॥ हाथियों में रत्नभूत ऐरावत, यह पारिजात का वृक्ष और यह उच्चेः श्रवा घोड़ा–यह सब आपने इन्द्र से ले लिया है॥ ९४ ॥ हंसों से जुता हुआ यह विमान भी आपके आंगन में शोभा पाता है। यह रत्नभूत अद्भुत विमान, जो पहले ब्रह्माजी के पास था, अब आपके यहाँ लाया गया है॥ ९५॥ यह महापग नामक निधि आप कुबेर से छीन लाये हैं। समुद्र ने भी आपको किझ्लल्किनी नाम की माला भेंट की है, जो केसरों से सुशोभित है ओर जिसके कमल कभी कुम्हलाते नहीं हैं॥ ९६ ॥ सुवर्ण की वर्षा करने वाला वरुण का छत्र भी आपके घर में शोभा पाता है तथा यह श्रेष्ठ रथ, जो पहले प्रजापति के अधिकार में था, अब आपके पास मौजूद है॥ ९७॥ देत्येश्वर! मृत्यु की उत्क्रान्तिदा नाम वाली शक्ति भी आपने छीन ली है तथा वरुण का पाश और समुद्र में होने वाले सब प्रकार के रत्न आपके भाई निशुम्भ के अधिकार में हैं। अग्नि ने भी स्वतः शुद्ध किये हुए दो वस्त्र आपकी सेवा में अर्पित किये हैं॥ ९८-९९॥ देत्यराज! इस प्रकार सभी रत्न आपने एकत्र कर लिये हैं। फिर जो यह स्त्रियों में रत्नरूप कल्याणमयी देवी है, इसे आप क्‍यों नहीं अपने अधिकार में कर लेते ?॥ १००॥

ऋषि कहते हैं— ॥ १०१ ॥ चण्ड-मुण्ड का यह वचन सुनकर शुम्भ ने महादेत्य सुग्रीव को दूत बनाकर देवीके पास भेजा और कहा–‘ तुम मेरी आज्ञा से उसके सामने ये-ये बातें कहना और ऐसा उपाय करना जिस से प्रसन्न होकर वह शीघ्र ही यहाँ आ जाय’॥ १०२–१०३॥ वह दूत पर्वत के अत्यन्त रमणीय प्रदेश में जहाँ देवी मौजूद थीं, गया और मधुर वाणी में कोमल वचन बोला॥ १०४॥ दूत बोला–॥ १०५॥ देवि! देत्यराज शुम्भ इस समय तीनों लोकों के परमेश्वर हैं। में उन्‍हीं का भेजा हुआ दूत हूँ और यहाँ तुम्हारे ही पास आया हूँ॥१०६॥ उनकी आज्ञा सदा सब देवता एक स्वर से मानते हैं। कोई उसका उल्लंघन नहीं कर सकता। वे सम्पूर्ण देवताओं को परास्त कर चुके हैं। उन्होंने तुम्हारे लिये जो संदेश दिया है, उसे सुनो॥ १०७॥ ‘सम्पूर्ण त्रिलोकी मेरे अधिकार में है। देवता भी मेरी आज्ञा के अधीन चलते हैं। सम्पूर्ण यज्ञों के भागों को मैं ही पृथक्‌-पृथक्‌ भोगता हूँ॥ १०८॥ तीनों लोकों में जितने श्रेष्ठ रत्न हैं, वे सब मेरे अधिकार में हैं। देवराज इन्द्रका वाहन ऐरावत, जो हाथियों में रत्न के समान है, मेंने छीन लिया है॥। १ ०९॥ क्षीरसागर का मन्थन करने से जो अश्व रत्न उच्चै:श्रवा प्रकट हुआ था, उसे देवताओं ने मेरे पेरों पर पड़कर समर्पित किया है॥ ११०॥ सुन्दरी ! उनके सिवा और भी जितने रत्नभूत पदार्थ देवताओं, गन्धर्वों और नागों के पास थे, वे सब मेरे ही पास आ गये हैं॥ १११॥ देवि! हमलोग तुम्हें संसार की स्त्रियों में रत्न मानते हैं, अतः तुम हमारे पास आ जाओ; क्‍योंकि रत्नों का उपभोग करने वाले हम ही हैं॥ ११२॥ चञ्जल कटाक्षों वाली सुन्दरी! तुम मेरी या मेरे भाई महापराक्रमी निशुम्भ की सेवा में आ जाओ; क्योंकि तुम रत्नस्वरूपा हो॥ ११३॥ मेरा वरण करने से तुम्हें तुलना रहित महान्‌ ऐश्वर्य की प्राप्ति होगी। अपनी बुद्धि से यह विचार कर तुम मेरी पत्नी बन जाओ’॥ ११५४॥

ऋषि कहते हैं–॥ ११५॥ दूतके यों कहने पर कल्याणमयी भगवती दुर्गा देवी, जो इस जगत्‌ को धारण करती हैं, मन-ही-मन गम्भीर भाव से मुसकरायीं और इस प्रकार बोलीं– ॥ ११६॥

देवीने कहा–॥ ११७॥ दूत! तुमने सत्य कहा है, इसमें तनिक भी मिथ्या नहीं है। शुम्भ तीनों लोकों का स्वामी है और निशुम्भ भी उसीके समान पराक्रमी है॥ ११८॥ किंतु इस विषय में मैंने जो प्रतिज्ञा कर ली है, उसे मिथ्या केसे करूँ ? मैंने अपनी अल्पबुद्धेकि कारण पहले से जो प्रतिज्ञा कर रखी है, उसे सुनो–॥ ११९॥ “जो मुझे संग्राम में जीत लेगा, जो मेरे अभिमान को चूर्ण कर देगा तथा संसार में जो मेरे समान बलवान्‌ होगा, वही मेरा स्वामी होगा’॥ १२०॥ इसलिये शुम्भ अथवा महादैत्य निशुम्भ स्वयं ही यहाँ पधोरें और मुझे जीत कर शीघ्र ही मेरा पाणिग्रहण कर लें, इसमें विलम्ब की क्‍या आवश्यकता है ?॥ १२१॥

दूत बोला–॥ १२२ ॥ देवि! तुम घमंड में भरी हो, मेरे सामने ऐसी बातें न करो। तीनों लोकों में कौन ऐसा पुरुष है, जो शुम्भ- निशुम्भके सामने खड़ा हो सके॥ १२३॥ देवि! अन्य देत्यों के सामने भी सारे देवता युद्ध में नहीं ठहर सकते, फिर तुम अकेली स्‍त्री होकर केसे ठहर सकती हो॥ १२४॥ जिन शुम्भ आदि देत्यों के सामने इन्द्र आदि सब देवता भी युद्धमें खड़े नहीं हुए, उनके सामने तुम स्त्री होकर कैसे जाओगी॥ १२५॥ इसलिये तुम मेरे ही कहने से शुम्भ-निशुम्भ के पास चली चलो। ऐसा करने से तुम्हारे गोरव की रक्षा होगी, अन्यथा जब वे केश पकड़ कर घसीटेंगे, तब तुम्हें अपनी प्रतिष्ठा खोकर जाना पड़ेगा॥ १२६॥

देवीने कहा–॥ १२७॥ तुम्हारा कहना ठीक है, शुम्भ बलवान्‌ हैं और निशुम्भ भी बड़े पराक्रमी हैं; किंतु क्या करूँ ? मेंने पहले बिना सोचे-समझे प्रतिज्ञा कर ली है॥ १२८ ॥ अत: अब तुम जाओ; मैंने तुमसे जो कुछ कहा है, वह सब देत्यराज से आदर पूर्वक कहना। फिर वे जो उचित जान पड़े, करें॥ १२९॥

इस प्रकार श्रीमार्कण्डेयपुराणमें सावर्णिक मन्वन्तरकी कथाके  अन्तर्गत देवीगाहात्म्यमें  देवी-दूत-संवाद ' नायक  पॉचवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ ५ ॥